अरावली पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से क्यों खड़ा हुआ सबसे बड़ा पर्यावरणीय संकट?

Edited By Sourabh Dubey, Updated: 19 Dec, 2025 04:32 PM

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भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमाला अरावली आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े कानूनी और पर्यावरणीय संकट से गुजर रही है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार की नई परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद राजस्थान की लगभग 90 प्रतिशत अरावली पहाड़ियां कागज़ों में अरावली...

जयपुर। भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमाला अरावली आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े कानूनी और पर्यावरणीय संकट से गुजर रही है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार की नई परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद राजस्थान की लगभग 90 प्रतिशत अरावली पहाड़ियां कागज़ों में अरावली नहीं रह जाएंगी। इस फैसले के बाद न केवल पर्यावरण विशेषज्ञों, बल्कि आम नागरिकों और राजनीतिक दलों के बीच भी चिंता गहराती जा रही है। राजस्थान में कांग्रेस ने इस मुद्दे को लेकर “सेव अरावली” अभियान की शुरुआत कर दी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह केवल राजनीतिक बहस है, या वास्तव में अरावली का भविष्य दांव पर लग चुका है?

अरावली क्या है और क्यों है इतनी अहम?

अरावली पर्वतमाला Pre-Cambrian काल की मानी जाती है और यह दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक है। इसकी कुल लंबाई लगभग 692 किलोमीटर है, जो गुजरात के खेड़ब्रह्मा से शुरू होकर राजस्थान होते हुए दिल्ली की रायसीना हिल्स तक जाती है। इस पर्वतमाला का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में स्थित है, इसलिए अरावली पर आने वाला कोई भी संकट सबसे पहले राजस्थान को प्रभावित करता है।

गौरतलब है कि, अरावली केवल पहाड़ों की श्रृंखला नहीं, बल्कि यह: पश्चिमी राजस्थान के लिए जलवायु कवच, थार मरुस्थल को फैलने से रोकने वाली प्राकृतिक दीवार, भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत, वन्यजीवों और जैव विविधता का सुरक्षित आश्रय मानी जाती रही है।

असल संकट की शुरुआत कहां से हुई?

सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय से यह स्पष्ट करने को कहा था कि अरावली की कानूनी परिभाषा क्या है और किन क्षेत्रों को अरावली माना जाए। यह प्रक्रिया 2024 से चल रही थी, लेकिन 20 नवंबर 2025 को केंद्र सरकार द्वारा दी गई परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। नई परिभाषा के अनुसार, कोई भी पहाड़ी तभी अरावली मानी जाएगी, जब उसकी ऊंचाई स्थानीय भूमि स्तर से कम से कम 100 मीटर हो। यानी 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां अब अरावली नहीं मानी जाएंगी।

आंकड़े जो चौंका देते हैं

Forest Survey of India के आंतरिक आकलन के अनुसार: कुल मैप की गई अरावली पहाड़ियां - 1281, 100 मीटर से अधिक ऊंची पहाड़ियां - सिर्फ 8.7%, यानी लगभग 90% अरावली कानूनी सुरक्षा से बाहर. स्पष्ट शब्दों में कहें तो, 90 प्रतिशत अरावली अब सरकारी रिकॉर्ड में अरावली ही नहीं रहेगी।

अब तक अरावली कैसे सुरक्षित थी?

अब तक अरावली को Ecologically Sensitive Zone मानते हुए: नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT), हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट द्वारा खनन और अवैध गतिविधियों पर सख्त रोक लगाई जाती रही है। खास तौर पर MC Mehta बनाम Union of India (1996) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान में सैकड़ों अवैध खदानें बंद करवाई थीं। इसी कानूनी संरक्षण के कारण अरावली अब तक बड़े पैमाने पर बची रही।

नए आदेश से क्या खतरे पैदा होंगे?

विशेषज्ञों के मुताबिक, नई परिभाषा के बाद - खनन को कानूनी रूप से चुनौती देना मुश्किल होगा, पर्यावरणीय संरक्षण कमजोर पड़ेगा, जंगलों का तेजी से सफाया होगा, भूजल स्तर में भारी गिरावट आएगी, वाइल्डलाइफ कॉरिडोर खत्म होंगे, तेंदुआ, लकड़बग्घा, पक्षी और अन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ेगा - यह संकट सिर्फ पहाड़ियों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे इकोसिस्टम को खत्म करने वाला साबित हो सकता है।

सरकार का तर्क क्या है?

केंद्र सरकार का कहना है कि कई अरावली जिलों में औसत ढलान 3 डिग्री से कम है, इसलिए उन्हें पर्वतीय क्षेत्र नहीं माना जा सकता। हालांकि पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि: “किसी जिले का मैदानी स्वरूप यह तय नहीं करता कि वहां की पहाड़ियां पर्यावरणीय रूप से महत्वहीन हो जाती हैं।”
 

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