Edited By Chandra Prakash, Updated: 15 Sep, 2024 07:18 PM
हनुमानगढ़, 15 सितंबर 2024 । प्रदेश की सरकार में सामान्य कामकाज भी अब अखबारों की सुर्खियां बनने लगे हैं। खासकर सत्ता वाली पार्टी के संगठन और सरकार में आपसी तालमेल कुछ कम दिख रहा है। नए बने संगठन मुखिया कुछ ज्यादा ही ऊर्जा में हैं ।पिछले दिनों पिछली सरकार द्वारा चुनाव से ठीक पहले बनाए गए नए जिलों की अहमियत को लेकर सरकार के मुखिया को रिपोर्ट सौंपी गई। रिपोर्ट पर अभी कोई सरकारी निर्णय सामने नहीं आया है। हालांकि सरकार के मुखिया ने देश के गृहमंत्री को पत्र लिखकर जनगणना शुरू होने से पहले पुनर्सीमांकन की इजाजत मांगी है। इसी बीच पार्टी के संगठन मुखिया ने बयान दे दिया कि सरकार कुछ जिलों को खत्म करेगी। उनके बयान के बाद यह लगने लगा कि अब सरकार कुछ नया करने वाली है और जाहिर है जिलों की संख्या कम होगी। अगले ही दिन एक कार्यक्रम में संगठन मुखिया ने यह बयान वापस ले लिया। उन्होंने कहा कि किसी को कुछ देकर वापस लेना महंगा पड़ सकता है। संगठन मुखिया के इस तरह बैक फुट पर आने से पार्टी कार्यकर्ताओं में असमंजस की स्थिति बन गई। हालांकि सरकार की तरफ से जिलों को लेकर बनी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। जब तक रिपोर्ट सामने नहीं आती और उस पर फैसला नहीं आता तब तक किसी भी बयान को अधिकृत नहीं माना जाता लेकिन संगठन मुखिया के कहने का मतलब यही निकाला जा सकता था कि सरकार अब कुछ करने वाली है। यही हाल सरकार के कई अन्य नेताओं और मंत्रियों का है। इस बार नेता बयान देते हैं और फिर पलट जाते हैं। वजह सामने है कि विपक्ष वाली पार्टी पूरी चौकस है और बयानों पर सरकार को घेरने में कसर नहीं छोड़ती। विपक्ष वाली पार्टी के संगठन मुखिया काफी तेज तर्रार हैं और सड़क से लेकर विधानसभा में सरकार की खिंचाई में कमी नहीं दिख रही।
'राम' की भक्ति, कांग्रेस की शक्ति और टिकट की मस्ती!
कभी-कभी राजनीति भी भजन की तरह हो जाती है—जहां सुर बदलते ही सुरताल बदल जाता है। कुछ ऐसी ही कहानी है भजन गायक मित्तल की, जो 'राम को लाए हैं' से मशहूर हुए, लेकिन अचानक उनके विचारों की धारा 'कांग्रेस को लाएंगे' की ओर बहने लगी। परंतु बीजेपी के आलाकमान के दर्शन होते ही वह बहे नहीं, बल्कि वहीं अटक गए, जहां से शुरू हुए थे—'राम' के दरबार में।
भजन गायक का मन कांग्रेस में जाने का तो था, पर मन बदलने में कितना वक्त लगता है? जैसे सुबह की चाय का कप बदलना आसान होता है, वैसे ही उन्होंने अपनी राजनीतिक मंशा बदल दी। उन्होंने खुद ही कहा, “आदमी मन का पुतला होता है।” अब, ये पुतले का मन अचानक कैसे घूम गया, ये जानना दिलचस्प है। कहते हैं, जब बीजेपी आलाकमान ने कान में कुछ 'मीठी' बातें डालीं, तो कांग्रेस के टिकट का सपना हवा में उड़ गया, और राम का आशीर्वाद फिर से उनके सिर पर चढ़ गया।
जब भजनीक जी से पूछा गया कि टिकट की बात क्या थी, तो जवाब आया, “अगर चाहिए होता तो बीजेपी से मिल जाता।” क्या बात है! टिकट मांगने की क्या जरूरत? उनके के भजन सुनते-सुनते तो राजनीतिक दल ही उन्हें टिकट देने का मन बना लेते हैं! अब राम का नाम लेना हो और टिकट भी न मिले—ये तो राम की भक्ति में थोड़ी सी सियासत का रंग भी घुलने जैसा है। भजन गायक जी का दिल तो बड़ा है, भाईसाहब। उन्होंने कहा, “मैं कांग्रेस को भगवान राम से जोड़ना चाहता था।” कल्पना कीजिए, कांग्रेस के मंच पर रामायण का पाठ हो रहा हो, और कन्हैया जी 'जो राम को लाए हैं' गा रहे हों—अद्भुत दृश्य होता न! पर जैसे हरियाणा की जनता के लिए उन्होंने सनातन धर्म को वोटिंग का आधार बताया, वैसे ही कांग्रेस के लिए यह जोड़ने की प्रक्रिया अधूरी रह गई।
वैसे, गायक जी ने बड़ी साफगोई से बताया कि चुनाव से उनका कोई लेना-देना नहीं है। आखिरकार, भजन में उनका मन लगता है। लेकिन चुनाव की चर्चा उठने पर वे खुद क्यों नहीं उठते? शायद, भजन गाते-गाते राजनीति की लय समझ में आ जाती है, और 'राम' की भक्ति में एक 'राजनीतिक' साज भी बजने लगता है। आखिर में, गायक जी की एक सीधी सी अपील—हरियाणा भगवामय होना चाहिए। जो 'सनातन की बात' करेगा, वही देश पर राज करेगा। इससे बस, भजन गायक की जगह एक 'राजनीतिक गायक' की छवि उभरती है, जो सुरों के साथ-साथ सियासत के भी अच्छे खिलाड़ी हैं। तो, मित्तल साहब के इस राजनीतिक 'स्विंग' पर अब जनता की बारी है कि वह किस सुर में ताली बजाए!
पूर्व मुखिया को जिम्मेदारी से हलचल!
केंद्र और प्रदेश में विपक्ष वाली पार्टी में लंबे समय से स्वास्थ्य लाभ ले रहे सरकार के पूर्व मुखिया को हरियाणा चुनाव के दौरान दिल्ली ने अचानक बड़ी जिम्मेदारी दे दी है। पार्टी आलाकमान ने पूर्व मुखिया को चुनाव के लिए सीनियर ऑब्जर्वर बनाया है। दिलचस्प बात यह है कि उनके साथ पार्टी के खजाने का काम देख रहे एक बड़े नेता और पंजाब के बड़े नेता को भी लगाया गया है। खजाने वाले नेता से पूर्व मुखिया की अदावत जगजाहिर है। अब दिल्ली ने सब कुछ बैलेंस करने की कोशिशें शुरू की हैं । पूर्व मुखिया सियासत के मंझे हुए खिलाड़ी हैं इसलिए उनकी अदावत किसी के साथ खुलकर सामने नहीं आती। पूर्व मुखिया लंबे समय से किसी जिम्मेदारी का इंतजार कर रहे थे। इस दौरान पार्टी में ही उनके विपक्षी युवा नेता के खेमे ने सक्रियता दिखाई। अब पूर्व मुखिया को जिम्मेदारी मिलने से युवा नेता के खेमे में हलचल है। दिल्ली का भरोसा अब भी पूर्व मुखिया पर कायम है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में उन्हें संगठन में बड़ी जिम्मेदारी मिल जाए। इस बार बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर पूर्व मुखिया कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। जाहिर है इससे युवा नेता पार्टी में एक बार फिर असहज होने वाले हैं।
पालना और पूत के पांव !
ये बात तो अब सच में माननी पड़ेगी कि बड़े-बूढ़ों ने यूं ही नहीं कहा था ‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। सीकर में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने जो तंज कसा है, वो सरकार के लिए गहरा और कड़वा दोनों तरह का प्रतीत हो रहा है। आखिरकार उन्होंने राज की बात कह दी है। उन्होंने सरकार के नौ महीने के कार्यकाल की तुलना नौ महीने के बच्चे से करके दोनों में समानता जताने का प्रयास किया है। फर्क सिर्फ इतना है कि बच्चे की चाल से उम्मीद होती है कि वो आगे बढ़ेगा, पर सरकार की सुस्त चाल देख कर जनता सोच में है, और पूछ रही है की इन्हें चलना कब आएगा ? कांग्रेस मुखिया ने आरोप लगाया की ब्यूरोक्रेसी हावी है, जनप्रतिनिधियों की कोई सुनता नहीं। विधायक बेचारे मंत्री के आगे पीछे घूम रहे हैं । मंत्री ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे 'परीक्षा के समय किताब का सारा सिलेबस'। चीफ ने कहा अढाई महीने से एक मंत्री "अपना स्तीफा लेकर घूम रहा है पर सरकार से जवाब नहीं मिलता। उन्होने दिल्ली की पर्ची का जिक्र करते हुए सवाल किया कि सरकार राजस्थान से चल रही है या दिल्ली से! कांग्रेस चीफ के बयान के मुताबिक, सरकार के पास खुद का कोई विवेक नहीं है—मतलब दिल्ली के हुक्मनामे और पर्चियों का पालन किया जा रहा है! बहरहाल... जनता भी पूत के पालने को आधार बनाकर सारे माजरे को समझ रही है कि ये सरकार कहां तक जाएगी।
पार्टी का स्टैंड या अकेले पार्षद की लड़ाई?
जिला मुख्यालय पर निर्दलीय विधायक के सत्ताधारी पार्टी की तरफ झुकाव के चलते सरकार में उनका दबदबा बन रहा है। दूसरी तरफ उनके साथ उपसभापति रहे और मौजूदा समय में विपक्ष वाली पार्टी के एक पार्षद इन दिनों विधायक के खिलाफ लगातार मुखर हो रहे हैं। ये पार्षद विधायक के सभापति रहते उपसभापति थे। तब दोनों एक ही दल में थे और सत्ता का सुख भोग रहे थे। अब तत्कालीन सभापति निर्दलीय विधायक बन गए और सरकार में पावर फुल हो गए। दूसरी ओर उपसभापति को अविश्वास प्रस्ताव से कुर्सी गंवानी पड़ी। अब पूर्व उप सभापति विधायक के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस कर विधायक पर अपराधियों की मदद करने और भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों का साथ देने का आरोप लगा रहे हैं। पूर्व उपसभापति पूर्व विधायक के खास माने जाते हैं। विपक्ष वाली पार्टी पूर्व उपसभापति के स्टैंड को लेकर अपना रूख स्पष्ट नहीं कर रही है। पार्टी के जिलाध्यक्ष ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है जबकि पूर्व उपसभापति लगातार नगर परिषद और अब कार्यवाहक सभापति के खिलाफ भी बयानबाजी कर रहे हैं। अभी तक पार्टी की तरफ से मौजूदा सभापति और विधायक के खिलाफ कोई बयान सामने नहीं आया है। राजनीतिक हलकों में इसे पूर्व उप सभापति के व्यक्तिगत कारणों से जोड़ा जा रहा है। बहरहाल यदि पार्टी ने पार्षद के स्टैंड का समर्थन नहीं किया तो पार्षद के अलग थलग पडने की आशंका पैदा हो जाएगी।