Edited By Rahul yadav, Updated: 26 Nov, 2024 01:54 PM
भारत के लोकतंत्र को 78 वर्ष पूरे हो चुके हैं। लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही ब्रिटिश हुकूमत और राजतंत्र का अंत हो गया था। लेकिन, पूर्व राजघरानों में आज भी गद्दी के उत्तराधिकार की परंपरा जारी है। इसी सिलसिले में मेवाड़ के राजपरिवार के बीच उत्तराधिकार...
मेवाड़ की गद्दी का संघर्ष: परंपरा बनाम वर्तमान
भारत के लोकतंत्र को 78 वर्ष पूरे हो चुके हैं। लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही ब्रिटिश हुकूमत और राजतंत्र का अंत हो गया था। लेकिन, पूर्व राजघरानों में आज भी गद्दी के उत्तराधिकार की परंपरा जारी है। इसी सिलसिले में मेवाड़ के राजपरिवार के बीच उत्तराधिकार को लेकर फिर एक विवाद उठ खड़ा हुआ है। स्वयं को एकलिंग जी का दीवान मानने वाले दोनों दावेदारों में से एक मंदिर में प्रवेश करना चाहता है, जबकि दूसरा उन्हें ट्रस्टी के नाते रोक रहा है। यह वही मेवाड़ है, जहां एक समय बेटे चुंडा ने अपने पिता के सम्मान में गद्दी त्याग दी थी। हालांकि, उसके बाद भी इस रियासत में गद्दी को लेकर कई विवाद हुए। राजस्थान के इतिहास में ऐसी कई घटनाएं दर्ज हैं, जहां उत्तराधिकार के लिए परिवार के सदस्यों में संघर्ष, छल-कपट और युद्ध हुए। यहां तक कि मेवाड़ के सबसे प्रतिष्ठित शासक महाराणा प्रताप भी इस परंपरा से अछूते नहीं रहे।
महाराणा प्रताप और उनके भाई जगमाल का संघर्ष
महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह की तीन पत्नियां थीं—जैवन्ता बाई, सज्जा बाई, और धीर बाई। जैवन्ता बाई से सबसे बड़े बेटे महाराणा प्रताप का जन्म हुआ, जिन्हें परंपरा के अनुसार गद्दी का उत्तराधिकारी होना चाहिए था। लेकिन, उदय सिंह ने अपनी प्रिय रानी धीर बाई से किए वादे के अनुसार उनके पुत्र जगमाल को युवराज घोषित कर दिया। राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक उदयपुर राज्य का इतिहास में इस घटना का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि उदय सिंह के निधन के समय जगमाल अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुआ। जब ग्वालियर के राजा रामसिंह ने पूछा कि उत्तराधिकारी कहां हैं, तो कुंवर सगर ने जवाब दिया कि महाराणा ने जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है। इस पर प्रताप के मामा अखैराज सोनगरा ने मेवाड़ के सरदारों से कहा, "यह संकट का समय है। चित्तौड़ पहले ही हाथ से जा चुका है, और अगर घर के भीतर कलह बढ़ी, तो राज्य का विनाश निश्चित है।" इस पर रावत कृष्णदास और सांगा ने प्रताप को गद्दी का उपयुक्त दावेदार मानते हुए उनके पक्ष में फैसला किया। उदय सिंह के अंतिम संस्कार के बाद गोगुंदा के एकलिंग मंदिर में महाराणा प्रताप का प्रतीकात्मक राजतिलक हुआ। इसके बाद कुंभलगढ़ में उन्हें औपचारिक रूप से मेवाड़ का महाराणा घोषित किया गया। जगमाल इस फैसले से नाराज होकर मेवाड़ छोड़ गया और अपने छोटे भाई शक्ति सिंह के साथ अकबर का साथ देने लगा। हल्दीघाटी के ऐतिहासिक युद्ध में दोनों भाई अकबर की सेना में शामिल होकर महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़े।
चुंडा का त्याग और उत्तराधिकार की परंपरा
इससे पहले, मेवाड़ में त्याग और बलिदान की परंपरा चुंडा द्वारा स्थापित की गई थी। महाराणा लाखा के बड़े पुत्र चुंडा ने अपने पिता के सम्मान में गद्दी का त्याग कर दिया था। किस्सा यह है कि मारवाड़ के राव रणमल अपनी बहन हंसाबाई का विवाह प्रस्ताव लेकर मेवाड़ आए थे। लेकिन लाखा ने इस प्रस्ताव को अपने लिए मान लिया और विवाह के लिए सहमति दे दी। रणमल ने शर्त रखी कि हंसाबाई के पुत्र को ही मेवाड़ की गद्दी मिलेगी। चुंडा ने पिता के निर्णय का सम्मान करते हुए गद्दी छोड़ दी और भीष्म प्रतिज्ञा ली कि उनके वंशजों की सहमति से ही भविष्य में मेवाड़ के उत्तराधिकारी चुने जाएंगे। यह परंपरा आज भी प्रासंगिक है और मौजूदा संघर्ष में यही सवाल खड़ा किया जा रहा है—क्या चुंडा के वंशजों की सहमति ली गई है?
पन्ना धाय का बलिदान
मेवाड़ की त्याग और बलिदान की परंपरा का एक और उदाहरण पन्ना धाय का है। 1536 में, जब बनवीर ने मेवाड़ के उत्तराधिकारी उदय सिंह की हत्या का षड्यंत्र रचा, तब पन्ना धाय ने अपने पुत्र चंदन को कुंवर के स्थान पर सुला दिया। बनवीर ने चंदन को मार डाला, लेकिन पन्ना धाय उदय सिंह को कुंभलगढ़ ले जाकर उनकी जान बचाने में सफल रहीं। इस स्वामिभक्ति ने पन्ना धाय को राजस्थान के लोककथाओं और कहावतों में अमर कर दिया।
तो दोस्तों जिस मेवाड़ में त्याग और बलिदान की ऐसी समृद्ध परंपरा रही हो, वहां वर्तमान उत्तराधिकार संघर्ष कई गंभीर सवाल खड़े करता है। खासकर यह कि क्या मेवाड़ के राजघराने के यह वंशज उस परंपरा के भी वाहक हैं?